क्यों खोल रही हो तुम वो संदूक ,
जिस में अनचाही यादें पड़ी हुई है।
क्यों बांध रही हो तुम खुद को,
जब वो इंसान खुद ही आजाद है तुमसे।
क्यों छोड़ रही हो मुस्कान अपनी,
जब उसे परवाह ही नहीं इस मुस्कान की।
क्यों चल रही हो अंधेरे रास्तों पर,
जब रोशनी तुम में खुद बसी है।
छोड़ दो उन राहों को तरसने दो उन बाहों को,
भीगेंगे अल्फाज उनके बरसने दो उन निगाहों को।
दर्शिनी ओझा
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