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“घर का पता”

प्रेम : कहां रहती हो तुम??
मैं : रेगिस्तान में !! सुलगती रेत के साथ

सुनकर तंग लकीरें खींच गई थी प्रेम के माथे पर… लंबे अरसे के बाद जो मिल रहा था मुझे !!

सच कहूं प्रेम??? जहां हमारे घर का पता हो वहीं हम सच में रह रहे होते है, वो ही हमारा ठिकाना हो ऐसा जरूरी तो नहीं….

आज मार्केट में प्रेम मिला था और मुझे पूछ बैठा की मैं कहां रहती हूं।
वैसे प्रेम ने मुझे घर का पता नहीं पूछा था नहीं तो बता देती के मैं आज भी पुराने एड्रेस पर गुजरात में ही रहती हूं पर उसने मुझे पूछा था की मैं कहां रहती हूं… मुझे सच तो बोलना ही था की हम साथ नहीं है तो क्या हुआ मेरी रूह आज भी उसी रेगिस्तान में बसी है.. आज भी में गुजरात में सांस लेती हूं पर मेरा दिल दू…… र रेगिस्तान में धड़कता है।। मेरा एड्रेस चाहे कोई भी हो मैं आज भी रहती उसी रेगिस्तान में हूं।। ठीक वैसे ही जैसे तुम धोरों पे रहने वाले आजकल आसाम की पहाड़ियों में बस चुके हो……

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