चलते–चलते यूँ ही कोई मिल गया था, सरे राह चलते–चलते
वहीं थम के रह गई है, मेरी रात ढलते–ढलते
जो कही गई न मुझसे, वो ज़माना कह रहा है
के फ़साना बन गई है, मेरी बात टलते–टलते
शबे इन्तज़ार आख़िर कभी होगी मुख़्तसर भी
ये चिराग़ बुझ रहे हैं मेरे साथ चलते–चलते
फ़िल्म : पाकीजा-1972
कैफ़ी आज़मी
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Literature