Jan 29, 2021
665 Views
0 0

कैकेयी

Written by

रनिवास में मैं गोटी खेलती थी
सुमित्रा के साथ.
कौशल्या को फ़ुर्सत ही कहाँ,
वह तो पटरानी थी,
पता नहीं उसे क्या-क्या करना पड़ता था ।

कह सकते हो कि मैं सुखी थी,
या फिर मुझे पता ही नहीं था
कि सुख होता क्या है.
हाँ, मेरा पति वैसा ही था जैसा वह था,
लेकिन वह राजा था ।

और फिर
वह तो हम तीनों रानियों की क़िस्मत थी
गनीमत है कि
कोख भर गई –
कैसे भरी यह मत पूछना ।

और फिर मन्थरा आई ।
मैं तो यही सोचते हुए व्यस्त थी
कि युवराज राम के अभिषेक में
साड़ी कौन सी पहनी जाए ।

मन्थरा की बातों से
मेरे अन्दर कुछ जग उठा –
जो कभी-कभी
एक साए सा दिखकर फिर ग़ायब हो जाता था ।

फिर वो सबकुछ हुआ,
जो तुम कहानियों में पढ़ते हो.
मुझे उन कहानियों में कोई दिलचस्पी नहीं ।

इससे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
जब तुम कहते हो
मैं सौतेली माँ बन गई –
मुख से सुख देकर बूढ़े राजा को मैंने बस में कर लिया ।

इससे क्या आता-जाता है
गद्दी पर मेरा बेटा है या खड़ाऊँ –
मैं राजमाता हूँ ।

मैं न होती
तो रामायण ही नहीं होती ।

उज्ज्वल भट्टाचार्य

Article Tags:
Article Categories:
Literature

Leave a Reply