Apr 27, 2021
331 Views
0 0

चाय पीती वह गरीब औरत

Written by

हल्की बूँदा-बाँदी में भी
लपेट ली है उसने शाल
काली, मैली शाल देह पर डाले
झुर्रियों वाले मुँह से
झरती हुई बूँदों को देखती
निर्लिप्त बैठी हुई
घुटने मोड़कर पेट में सटाये
वक्त और काम की मार से टूटी हुई देह
आसानी से मुड़ जाती है
बैठी हुई है पैर मोड़े
घुटनों को पेट के साथ जोड़े
चाय का गिलास लिये हाथ
पी रही है चाय
हर चुस्की का रस लेती हुई
पलों में डूबकर जीती हुई
खाना मिले, न मिले
भूख से पेट जले तो जले
पर चाय ज़रूर मिले
दिन-भर में कई-कई बार
क्योंकि यही तो है आधार
चाय और बीड़ी पर
चल रहा है जीवन
बीड़ी फूँकती है दनादन
जल गये हैं फेंफड़े
रुक रहा स्पंदन
फिर भी हारा नहीं है मन
चलती है
तो साँसें फूलती हैं
पर है निर्विकार
नहीं है चिंता
उसका तो यही मौज
यही आधार
नहीं है कोई शिकायत
न आसमां से, न ज़मीं से
कहती नहीं भेद किसीसे
मेल रखती है सभीसे
विदुषियों से भी अधिक विचारशीला वह
किंतु संघर्ष का टीला वह
जानती है जीवन की लीला वह
घर है झगड़े का घर
मिलती है उपेक्षा
वह कहती है राम की इच्छा
वह जानती है सच
नहीं पोसती झूूठे आदर्श
गल गया है तन-मन
फिर भी हर हाल में
जी रही है जीवन
चाय पीती है गरीब औरत
दुबली अंगुलियों से थामे चैन का गिलास
फिर धुँए से भरेगी साँस
यही है आनंद का सार
सब भूलो
कि दुनिया है बेकार

Article Tags:
Article Categories:
Literature

Leave a Reply